पुस्तक परिचय : भाग 1
मोहन दास – उदय प्रकाश
दोस्तों ! मैं हिंदी की एक कहानी ‘ मोहन दास’ पर अपना दृष्टिकोण आपके सामने रखना चाहता हूँ। वैसे रचनाकार अपनी रचना में हर एक बात का संयोजन बहुत सोच-समझकर करता है और शीर्षक का कुछ ज्यादा ही; अतः आप ही कहानी पढ़कर तय कीजिएगा कि लेखक ने कहानी के नायक का नाम ‘मोहन दास’ ही क्यों चुना है ? क्या इस कहानी का कोई संबंध गाँधी जी या गाँधीवाद से भी बनता है ?
साल 2005 में रचित उदय प्रकाश जी की लंबी कहानी ‘मोहन दास’ कथ्य और शिल्प के स्तर पर अपने समकालीन लेखन से भिन्न है । मोहन दास कहानी का कथ्य जातीय, सामाजिक,आर्थिक स्थिति एवं व्यवस्थागत भ्रष्टाचार का साहित्यिक दस्तावेज़ है । यह कहानी एक उच्च शिक्षित दलित युवक मोहन दास की संघर्ष गाथा है | इस युवक का संघर्ष न तो मंदिर में प्रवेश के लिए है, न ही तालाब और कुएँ के पानी पर हक़ माँगने के लिए, न घोड़ी पर चढ़ बारात निकलने के लिए और न ही सवर्ण के जातियों के दमन और शोषण के खिलाफ प्रतरोध कर उनका सामना करने के लिए है । बल्कि मोहनदास का संघर्ष है अपनी चुराई गई नौकरी वापस पाने का ।
आप चौंक गए होंगे कि क्या नौकरी भी कोई चुराने वाली चीज है ? तो यह कहानी इसी नौकरी चोरी और उसे वापस पाने की कोशिश की प्रक्रिया का नैरेशन है । इसे पढ़ने के बाद आपकी नज़रों में वह नज़रिया पैदा हो जाएगा कि आप अपने आसपास नौकरी चोरी करने वाले लोगों को देख सकेंगे । इससे पहले कि आप ऊबने लगें चलिए हम सीधे कहानी के कथ्य से आपको रूबरू कराते हैं ।

कहानी बस इतना ही है कि कहानी का नायक मोहन दास एक दलित परिवार से है । वह अपने क्लास में एक मेहनती और पढ़ाकू छात्र के रूप में जाना जाता है । बी.ए. की परीक्षा में विश्वविद्यालय की वरीयता सूची में उसे दूसरा स्थान मिलता है । वह कई नौकरियों के लिए आवेदन करता है लेकिन लिखित परीक्षा में अव्वल आने के बाद वह साक्षात्कार में निकल दिया जाता है । चूँकि मोहनदास दलित है अतः शैक्षिक योग्यताएँ होने के बाद भी बड़ी रसूख और सिफ़ारस पत्र न होने के कारण उसे हर जगह नौकरी मिलते-मिलते रह जाती है।
थकहार कर वह अपने पत्रिक कार्य और खेती-बारी में रम जाता है । कुछ महीनों बाद उसे पता चलता है कि उसी की कक्षा में पढ़ने वाला ऊँची जाति का विश्वनाथ पाण्डेय जिसके पास पूँजी, सत्ता और ताकत है वह ‘ओरियंटल कोल माइंस’ में जहाँ कभी मोहनदास ने लिखित परीक्षा और साक्षात्कार दिया था ,मोहन दास बन कर उसकी डिग्री और पहचान पर नौकरी कर रहा है। यह इसलिए संभव हो जाता है कि उसके कागजातों पर कहीं भी फोटो नहीं थे ।
जैसे-जैसे मोहनदास विश्वनाथ पाण्डेय का पर्दाफास करने एवं अपनी नौकरी पाने के लिए की लड़ाई लड़ता है वह पाता है कि पूरा सिस्टम ही भ्रष्ट और सड़ा हुआ है । अपनी नौकरी पाने की लड़ाई में जातीय सत्ता और प्रशासनिक व्यवस्था उसे इतना तंग कर देती है कि कहानी के अंत में वह कहता है कि , ” मैं नहीं हूँ मोहन दास , मैंने कभी कहीं से बी.ए. पास नहीं किया । कभी टॉप नहीं किया । मैं कभी किसी नौकरी लायक नहीं रहा । बस मुझे चैन से जिन्दा रहने दिया जाय ।अब हिंसा मत करो । जो भी लूटना है लूटो । अपना घर भरो लेकिन हमें तो अपनी मेहनत पर जीने दो ।”
मोहनदास का यह वाक्य पूरे लोकतंत्रामक और प्रशासकीय व्यवस्था की असफलता है कि जो मोहनदास अपनी नौकरी और पहचान वापस पाने के लिए संघर्षरत था वही स्वयं के मुँह से ‘मैं मोहन दास नहीं हूँ’ कहने के लिए विवस हो गया है । जो व्यवस्था आम आदमी के जीवन को सुगम बनाने के लिए बनाई गई थी उसने ही हमारा जीवन दुश्वार कर रही है ।
दोस्तों ! एक परिचयात्मक समीक्षक के रूप में मेरा काम यहीं ख़त्म हो जाता है । मैं मोहन दास के शिल्प पर एक ही वाक्य लिखूँगा कि लेखन की ऐसी शैली और प्रस्तुतीकरण का ऐसा लहज़ा हिंदी सहित भारतीय भाषाओँ में बिरले ही मिलेगा । जैसे मंटो की कहानी ‘खोल दो’ की अंतिम चार-पाँच पंक्तियाँ पाठक को फ्रिज कर देती हैं और भले ही सूई की नोक बराबर ही सही पाठक के अंतःकरण में परिवर्तन ला देती हैं वैसे ही मोहन दास कहानी पढ़ने के बाद आप वह नहीं रहेंगे जो उसे पढ़ने से पहले आप थे । अगर आप मोहन दास कहानी पढ़ना चाहते हैं तो किसी लाइब्रेरी या अमेजोन का रुख कीजिए और किताब खरीदिए । यह लंबी कहानी किन्डल पर भी उपलब्ध है । जल्दी ही मिलेंगे किसी अन्य जरूरी किताब के साथ ….
किताब- मोहन दास
लेखक-उदय प्रकाश
प्रकाशक- वाणी प्रकाशन , दिल्ली
प्रष्ठ संख्या-96
– श्रीकांत रामविशाल मिश्रा,
(स्वतंत्र अनुवादक और शिक्षक हैं )
अत्यंत सहज शैली में लिखित पुस्तक परिचय के शब्दों से संवाद करते हुए मैंने समीक्षा पढी। शब्दों में लय है श्रृंखला है। श्रीकांत मिश्रा जी को हार्दिक बधाई।